वृध्दि और विकास, विकास की अवस्थाएं, उनके अंतर एवं प्रभावित करने वाले कारक

वृध्दि और विकास क्या है ?

वृध्दि और विकास मनुष्य के जीवन में गर्भधान से लेकर पूरे जीवन पर्यन्त चलता ही रहता है। वृध्दि वह है, जो कुछ समय पर जाकर रुक जाता है, और विकास वह है , जो जीवन पर्यन्त चलता ही रहता है। जिसकी कोई सीमा नहीं होती है।

वृध्दि का अर्थ – वृध्दि का अर्थ होता है, कि मनुष्य का शारीरिक रूप से वृध्दि होना। जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तब वह बहुत छोटा होता है उसके हाथ-पैर छोटे-छोटे होते है। पर जब वह धीरे-धीरे बड़ा होता है, तो उसके हाथ-पैर, वजन सब बढ़ने लगता है, इसी को शारीरिक या दैहिक रूप से वृध्दि कहा जाता है। यह कुछ समय तक के लिए ही होता है, इसके बाद शारीरिक रूप से वृध्दि होना बंद हो जाता है। ऐसी शारीरिक वृध्दि ना सिर्फ मनुष्य में बल्कि संसार के प्रत्येक प्राणी में देखी जाती है।  

               ‘ गेसेल’ नामक मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि “वृध्दि एक ऐसी जटिल एवं संवेदनशील प्रक्रिया है, जिसमें प्रबल स्थिरता लाने वाले कारक केवल बाह्य ही नहीं बल्कि आतंरिक भी होते है, जो बालकों के प्रतिरूप तथा उसकी वृध्दि की दिशा में संतुलन बनाये रखते हैं”

विकास का अर्थ – विकास जो जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन पर्यन्त निरंतर रूप से चलने वाली प्रक्रिया है जिनमें मनुष्य कुछ ना कुछ सीखता रहता है। मनुष्य का शारीरिक क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है।

                                     ‘हरलॉक’ (1968) के अनुसार “विकास प्रगतिशील परिवर्तनों का एक नियमित, क्रमबद्ध एवं सुसम्बद्ध पैटर्न है।”

                 ‘गेसेल’ ने विकास को एक तरह का परिवर्तन कहा है, जिसमें बच्चों में नवीन विशेषताओं एवं क्षमताओं का विकास होता है।

                  ‘स्टैट’ (1974) के अनुसार “विकास समय के साथ होने वाला परिवर्तन है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका प्रेक्षण प्रतिफलों के अध्ययन द्वारा किया जा सकता है।”

                                        ‘हरलाक’ ने विकास में होने वाले परिवर्तन में क्रमिकता की बात कही है, क्योंकि इसके अंतर्गत आने वाले सभी परिवर्तन क्रमबद्ध होते हैं। जिसका अनुसरण उस समय के सभी बच्चों द्वारा किया जाता है। जैसे – बच्चा पहले रेंगता है, फिर खिसकता है, फिर बैठता है और फिर चलना शुरू करता है। विकास का एक निश्चित क्रम होता है।

वृध्दि और विकास में अंतर

 वृध्दिविकास  
1.शारीरिक रूप से बढ़ने या फैलने को वृध्दि कहते हैं।                   शारीरिक, मानसिक, और व्यवहारिक र्रूप से होने को विकास वाले बदलाव कहते हैं।
2.वृध्दि एक विशेष प्रकार का विकास विकास सूचक है।      विकास एक व्यापक संप्रत्यय है।
3.वृध्दि की सीमा तय होती है और उस समय के बाद वह रुक जाती है।विकास अनवरत चलता रहता है।

वृध्दि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक

बच्चे के विकास परअनेक बातों का प्रभाव पड़ता है। बच्चे के विकास पर जिन चीजों का प्रभाव पड़ता है, उनमें से कुछ तो पहले से ही उसके अंदर होते हैं और कुछ उसके वातावरण में पाए जाते हैं। वृध्दि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक नीचे दिया गया है।

  1. बुध्दि – विकास पर जिन चीजो का प्रभाव पड़ता है उनमे सबसे महत्वपूर्ण चीज बच्चे कि बुध्दि समझी जाती है। परीक्षणों और प्रयोगों से इस बात को प्रमाणित किया गया है कि तीव्र बुद्धि के बच्चों का विकास मंदबुद्धि के बच्चों की तुलना में अधिक तेजी से होता है। “टरमन ने एक अध्ययन से पता लगाया कि तीव्र बुध्दि के बच्चे 13 महीने में चलना शुरू कर देते हैं और 11 महीने में बोलना भी शुरू कर देते हैं, जबकि कमजोर बच्चे लगभग 30 महीने में चलना और 15 महीने में बोलना शुरू करते हैं। इसी कारण एक तीव्र बुध्दि वाले बच्चे की तुलना में मंदबुद्धि वाले बच्चे में काफी अंतर होता है। इसीलिए ‘बुद्धि’ बच्चों को विकास में काफी हद तक प्रभावित करता है।”
  2. जाति – बच्चों की मानसिक और शारीरिक विकास पर ‘जाति’ का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
    जैसे – भारतीय, नेपाली, भूटानी, चीनी, नीग्रो आदि बच्चों का विकास यूरोपीय जातियों के बच्चों के तुलना में धीरे-धीरे होता है। इसी कारण एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से न सिर्फ शारीरिक गठन और आकृति में अलग होते हैं, बल्कि भिन्न जाति के होने के कारण उनके बोद्धिक , नैतिक और मानसिक विकास पर भी बहुत हद तक प्रभाव पड़ता है
  3. पोषण / पोषाहार – पोषण या पोषाहार वह है जो बच्चे को बहार से मिलता है। बुद्धि, जाति इन सभी से होने वाले प्रभाव बच्चे के अंदर जन्म से नहीं होता है बल्कि अपने आस-पास के वातावरण से होता है। एक बच्चे के लिए जितना महत्व भोजन की मात्रा का नहीं होता है बल्कि उतना उसमें पाए जाने वाले पोषक तत्व जैसे – विटामिन, आयरन आदि का। पोष्टिक भोजन के अभाव में बच्चों को अधिकतर दांत, चर्म की बीमारियों और शारीरिक दुर्बलता होता है।
  4. लिंग – लिंग-भेद के कारण शारीरिक और मानसिक गुणों के विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कों की लम्बाई लड़कियों से ज्यादा होता है। परंतु बाद में लड़कियों का विकास अधिक तेजी से होता है और लड़कों के तुलना में लड़कियों का शरीर पहले विकसित हो जाता है। इसलिए लिंग-भेद के कारण भी बच्चों के विकास पर प्रभाव पड़ता है।
  5. रोग – शारीरिक बीमारियों इए कारण बच्चों के होने वाले विकास पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ता है। बचपन में होने वाले गंभीर बीमारी जैसे – टाईफाइड, न्यूमोनिया, ब्रेन मलेरिया आदि का प्रभाव बच्चों पर बहुत दिनों तक रहता है, जिसके कारण बच्चों का उचित रूप से शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है. वहीँ स्वस्थ बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास सामान्य रूप से होता है।
  6. वातावरण – बच्चे के विकास के लिए वातावरण का भी बहुत महत्व है, क्योंकि बच्चा अपने आस-पास जो देखता है वही सीखता है। जिस घर में पहले से या आस-पास बच्चे होते हैं, उस घर में छोटे बच्चों का विकास बहुत तेजी से होता है, क्योंकि बच्चा उनको देखकर ही सीखता है, वहीँ जो बच्चा अकेले बड़ा होता है, उसका विकास धीरे-धीरे होता है।
  7. अनुवांशिकता – मनुष्यों में पाए जाने वाले गुणों का विकास उनके माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी से प्राप्त जीनों द्वारा होता है या आस-पास के लोग, स्कूल-कॉलेज के वातावरण के द्वारा होता है। अनुवांशिकता को मानने वाले ‘गाल्टन’ ‘मेंडोल’ और ‘लेमार्क’ आदि के विचार महत्वपूर्ण है।
  8. ‘गाल्टन’ ने संतान के गुणों के विकास में अनुवाशिकता को सर्वाधिक शक्तिशाली कारक माना है।
  9. ‘मेंडोल’ ने माता-पिता से प्राप्त 23-23 क्रोमोसोम्स और उससे प्राप्त जीनों के विभिन्न संयोगों को गुणों के निर्धारण में सहायक माना है।

‘लेमार्क’ का मानना है कि माता-पिता या अन्य पूर्वजों के अर्जित गुण भी संतान को अनुवांशिकता द्वारा मिलते हैं।

विशेषताएँ –                                 

बच्चें जिस विकास प्रक्रिया से गुजरते हैं , उसकी कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो सभी विकासशील बच्चों में सामान रूप से पायी जाती है।

  • विकास जन्म लेने वाले सभी प्राणियों में होता है, और प्रत्येक जाति के प्राणी विकास की एक निश्चित प्रणाली होती है। “गेसेल” का विचार है कि किन्हीं दो बच्चों का विकास एक सामान नहीं होता, परंतु सबों की विकास प्रणाली एकदम एक सामान होती है।
  • विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है – शुरुआत में बच्चों की सभी शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ सामान्य ढंग से होती है।
  • विकास अविराम गति से होता है – गर्भाधान के समय जो विकास-प्रक्रिया शुरू होती है, वह निरंतर बिना रुके मृत्यु के समय तक चलती रहती है। धीरे-धीरे विकास होता है, विकास की कई अवस्थाएँ मानी जाती है जैसे- शैशवास्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रोढ़ावस्था। जन्म से लेकर हर अवस्था में हरेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक विकास होती है।
  • विकास की गति वयक्तिक रूप से भिन्न होती है – सभी बच्चों की विकास गति अलग-अलग होती है। जब नवजात बच्चे जन्म लेते हैं, तब सभी के अलग-अलग लम्बाई और वजन के होते हैं। उनकी मानसिक योग्यता भी अलग होता है। कुछ बच्चे धीरे-धीरे विकसित होते हैं। कोई बच्चा 5 महीने में बैठता है, तो कोई बच्चा 12 महीने में बैठता है। विकास गति अनुवांशिक भिन्नता के कारण होता है।
  • शरीर के विभिन्न अंगों की विकास-गति अलग-अलग होता हैविकास तो शरीर के सभी अंगों और मानसिक क्रियाओं में हर समय बहुत तेजी के साथ होता रहता है, पर सभी शारीरिक अंगों और मानसिक क्रियाओं का विकास एक साथ नहीं होता है।

मानव विकास की अवस्थाएँ

मानव विकास की अवस्थाएँ होती है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती है. विकास की हरेक अवस्था की महत्वता अलग-अलग होती है।

          विकास की अवस्था      जीवन की अवधि
1.गर्भावस्थागर्भाधान से लेकर जन्म तक
2.शैशवावस्थाजन्म से लेकर 3 वर्ष तक
3.बाल्यावस्था3 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक
4.किशोरावस्था13 वर्ष से लेकर 19 वर्ष तक
5.युवावस्था20 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक
6.प्रोढ़ावस्था26 वर्ष से लेकर 60 वर्ष तक
7.वृद्धावस्ता60 वर्ष से लेकर जीवन के अंत तक
  1. गर्भावस्था – यह अवस्था गर्भाधान के समय से लेकर जन्म के पहले की अवस्था है। इस अवस्था में बच्चे के अंगों का निर्माण होता है, वजन, शारीरिक विकास लम्बाई आदि होता है।
  2. शैशवावस्था – जन्म से लेकर 3 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में बच्चे को नवजात शिशु भी कहते है। वैज्ञानिकों द्वारा माना गया है कि इस अवस्था में बच्चे के भीतर कोई विशेस परिवर्तन नहीं होता है। जन्म लेने के बाद जिस वातावरण में बच्चे अपने को पाता है उसे समझना और उसमें अपने को समायोजित करना उसके लिए आवश्यक होता है। इस अवस्था में समायोजन की प्रक्रिया के अलावा बच्चे के भीतर कोई अन्य मानसिक या शारीरिक विकास के लक्षण नहीं दिखलाई पड़ते हैं।
  3. बाल्यावस्था – इस अवस्था को विकास की एक विशेष अवस्था समझी जाती है। इस अवस्था में बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास होता है क्योंकि बच्चे अपने घर में या आस-पास में जो देखते हैं, वही सीखते हैं। बच्चे बहुत नादान होते हैं, उन्हें सही-गलत की समझ नहीं होती है। इस अवस्था में ज्यादा लोगों के साथ रहकर बच्चों में अनुकरण, खेल, सहानुभूति तथा निर्देशग्राहकता का विकास होने लगता है।
  4. किशोरावस्था – किशोरावस्था, बाल्यावस्था का अंतिम अवस्था होता है। इस अवस्था में बच्चों का मानसिक और  शारीरिक विकास बहुत तेजी से होता है। (Hormonal Changes)  होते हैं, और बच्चों का शारीरिक विकास इसी अवस्था से शुरु हो जाता है। इस अवस्था की अनेक परिवर्तन विशेषताएं होती है, जिनमें दो प्रमुख है – सामाजिकता और कामुकता। इन्हीं से अनेक परिवर्तन इस अवस्था में उत्तपन्न होते हैं।
  5. युवावस्था – 20 वर्ष से 26 वर्ष तक की इस अवस्था में व्यक्ति उच्च शिक्षा प्राप्त करने तथा रोजगार की तलाश करता है। रोजगार मिलने और विवाह हो जाने तक के 20 से 26 वर्ष के ‘युवावस्था’ के अंतर्गत समझे जाते हैं।
  6. प्रोढ़ावस्था – इस अवस्था में व्यक्ति के जीवन में बहुत सारे उत्तरदायित्व होते है, व्यक्ति इसी अवस्था में तरक्की करने की कोशिश करता है। व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों, सम्बन्धियों, वैवाहिक जीवन तथा व्यवसाय के साथ अच्छे व्यवहार और घुलमिलकर रहना चाहिए। जो युवावस्था में भी अपने माता-पिता के संरक्षण में रहे हैं, वह इस अवस्था में जल्द आत्मनिर्भर नहीं हो पाते हैं।
  7. वृद्धावस्था – यह अवस्था जीवन की अंतिम अवस्था होती है। शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ इस अवस्था में कम होने लगती है। शारीरिक परिवर्तनों के साथ मानसिक परिवर्तन भी इस अवस्था में होती है। वृद्धावस्था में व्यक्ति का स्मरण क्षमता भी बहुत कम हो जाती है।

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