मूल्यांकन तथा मापन एक जैसे लकते पर ऐसा नहीं है मापन मूल्यांकन का एक अंग है । दोनो की परिभाषा,प्रकार,महत्व में बहुत अन्तर है।
मूल्यांकन
मूल्यांकन एक सदैव चलने वाली विस्तृत प्रक्रिया है । हम जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में मूल्यांकन करते रहते है । हम जो बातें सीखते हैं, वे व्यवहार में परिवर्तन लाती है, यह परिवर्तन हमारे लक्ष्यों को पूरा कर रहे हैं या नहीं, इसकी जानकारी मूल्यांकन द्वारा प्राप्त होती है । जब हमें किसी व्यक्ति या वस्तु को उसके गुण-दोष के सन्दर्भ में उसका अवलोकन करते हैं, तो वह वहां मूल्यांकन निहित होता है । इसी प्रकार शैक्षिक मूल्यांकन में केवल विधार्थी की ही जाँच नहीं की जाती है, बल्कि शिक्षण पद्धति, पाठ्य-पुस्तक तथा अन्य शैक्षिक साधन की उपयोगिता की भी जाँच की जाती है तथा शिक्षण प्रक्रिया को बच्चे और समाज दोनों की दृष्टि से उपयोगी बनाने का प्रयास किया जाता है ।
मूल्यांकन की परिभाषा
मूल्यांकन को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित किया है ।
- ‘रेमेर्स एवं गेज’ के अनुसार – “मूल्यांकन के अंतर्गत व्यक्ति या समाज या दोनों की दृष्टि से जो उत्तम एवं वांछनीय है, उसका ही प्रयोग किया जाता है ।”
- प्रो. डांडेकर’ के अनुसार’ – “मूल्यांकन की परिभाषा एक व्यवस्थित प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है, जो इस बात को निश्चित करती है कि किस सीमा तक विद्यार्थी शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त करने में समर्थ रहा है ।
- ‘क्विलेम तथा हन्ना के अनुसार’ – “विधालय द्वारा बच्चे के व्यवहार परिवर्तन के विषय में साक्षियों के संकलन तथा उसकी व्याख्या करने की प्रक्रिया ही मूल्यांकन है ।”
- ‘टारगेसरन तथा एडम्स के अनुसार’ – “मूल्यांकन का अर्थ है किसी वस्तु या प्रक्रिया का निश्चित करना। इस प्रकार शैक्षिक मूल्यांकन से तात्पर्य है – शिक्षण प्रक्रिया या सीखने की क्रियाओं से उत्पन्न अनुभवों की उपयोगिता के बारे में निर्णय देना ।”
- ‘बेडफील्ड और मोरडोक’ के अनुसार – मूल्यांकन आमतौर पर किसी सामाजिक, सांस्कृतिक या वैज्ञानिक स्तर के सन्दर्भ में एक घटना या क्रिया के गुण एवं मूल्य को विशेषताओं के लिए प्रतीक निश्चित करना होता है ।”
मूल्यांकन के प्रकार
शिक्षण के लिए तीन प्रकार के मूल्यांकनों का प्रयोग किया जाता है –
- संकलनात्मक मूल्यांकन (Summative Evaluation)
- रचनात्मक मूल्यांकन (Formative Evaluation)
- नैदानिक मूल्यांकन (Diagnostic Evaluation)
- संकलनात्मक मूल्यांकन – संकलनात्मक मूल्यांकन पाठ्यक्रम या कार्यक्रम के समाप्त होने पर किया जाता है । स्कूलों में ली जाने वाली वार्षिक और अर्धवार्षिक परीक्षाएं इसी संकलनात्मक मूल्यांकन के अंतर्गत आते हैं । इस प्रकार के मूल्यांकन का उद्देश्य बच्चों को ग्रेड, श्रेणी प्रदान करना, उनसे तुलना करना और कक्षा के लिए उत्तीर्ण करना है । इस मूल्यांकन का प्रयोग विशिष्ठ पाठ्यक्रमों के प्रवेश के लिए या छात्रवृत्तियों के लिए बच्चों को चुनने के लिए भी किया जाता है ।
- रचनात्मक मूल्यांकन – बच्चे के अधिगम को बेहतर बनाने के उद्देश्य से मूल्यांकन शिक्षा के दौरान ही किया जाता है । अधिगम की कमजोरियों का पता लगाकर बच्चों की प्रगति के विषय में प्रतिपुष्टि प्रदान करना इस मूल्यांकन का उद्देश्य है । यह मूल्यांकन पाठ्यक्रम विषयवस्तु तथा शिक्षक सामग्रियों की प्रभावोत्पादकता के संकेत भी प्रदान करता है । रचनात्मक मूल्यांकन का प्रमुख उद्देश्य शिक्षण को बेहतर बनाना है । यह अनौपचारिक स्वरुप का होता है, इसमें अवलोकन मौखिक परीक्षाओं लिखित परीक्षाओं इत्यादि जैसे बहु-तकनीकों द्वारा किया जा सकता है ।
- नैदानिक मूल्यांकन – नैदानिक मूल्यांकन का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को सीखने या पढने में कमजोर होने के कारणों का पता लगाना है, लेकिन शिक्षण से पहले भी इसकी आवश्यकता होती है ताकि बच्चों की उपलब्धि के स्तर का पता लगा कर उसे उचित रूप में महत्व दिया जा सके । नैदानिक मूल्यांकन शिक्षक को बच्चों को उनकी दक्षता के स्तर के अनुसार वर्गीकृत करने में सहायता करता है, और बच्चों की कमजोरी के लिए शिक्षण विधियाँ या सामग्रियों के अतिरिक्त अन्य कई और कारण भी हो सकते हैं । यह कारण शारीरिक भावात्मक या सामाजिक कारण भी हो सकते हैं जो सीखने में बाधक हो सकते हैं । इस प्रकार नैदानिक मूल्यांकन शिक्षण देने के लिए आधार प्रदान करता है।
मूल्यांकन का उद्देश्य
शिक्षक मूल्यांकन मैं कई सारे कार्य करता है । विद्यार्थियों को ग्रेड एवं श्रेणी प्रदान करना, उनकी तुलना करना, अर्थात अगली कक्षा में भेजना । इसका प्रयोग पाठ्यक्रम के पूरा होने को प्रमाणित करने, या विधालय में प्रवेश, छात्रवृत्ति के लिए विधार्थियों का चयन करने के लिए किया जाता है । विधालय में मूल्यांकन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाना है । शिक्षा में सुधार लाना है, और मूल्यांकन यह कार्य विधार्थी अधिगम, कक्षा शिक्षण, पाठ्यचर्या और पाठ्यवस्तु संबंधी प्रतिपुष्टि प्रदान करके करता है । यह विधार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने में भी सहायता करता है ।
- अधिगम में सुधार करना ।
- शिक्षण में सुधार करना ।
- पाठ्यचर्या या विषयवस्तु का नवीनीकरण ।
- गैर-संज्ञानी क्षमताओं का विकास ।
- छात्रों को अधिगम हेतु प्रेरित करना ।
- छात्रों की योग्यता आधारित वर्गीकरण करना ।
- छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान को जाँचना ।
मूल्यांकन का महत्व –
- मूल्यांकन के अभाव में शिक्षा और शिक्षण की समस्याओं का समाधान संभव नहीं है ।
- शिक्षा की योजना की सार्थकता अथवा शिक्षक की शिक्षण-पद्धति का पता लगाने के लिए ।
- छात्रों की व्यक्तिगत समस्या का पता चलता है ।
- किसी युक्ति, तकनीकी या शिक्षण विधि की प्रभाविता का पता भी मूल्यांकन के द्वारा ही संभव है ।
- मूल्यांकन के अभाव में किसी प्रकार का निर्देशन संभव नहीं होता ।
मापन
मापन का अर्थ – मापन प्रदत्तों या अंकों में वर्णन करता है । मापन द्वारा किसी वस्तु का शुद्ध और वास्तुनिष्ठ रूप में वर्णन किया जाता है । किन्हीं निश्चित इकाइयों में वस्तु या गुण के परिणाम का पता लगाना मापन कहा जाता है ।
मापन की परिभाषा –
- कैम्पबेल के अनुसार – “नियमों के अनुसार वस्तुओं या घटनाओं को अंकों या संख्याओं में व्यक्त करना मापन है ।”
- ब्रेडफील्ड व मोरडोक के अनुसार – “मापन प्रक्रिया में किसी घटना अथवा तथ्य के विभिन्न आयामों के लिए प्रतीक निश्चित किये जाते हैं, जिससे उस घटना की स्थिति का यथार्थ निर्धारण किया जा सके ।”
- स्टीवेन्स के अनुसार – “मापन किन्हीं निश्चित स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है ।”
मूल्यांकन तथा मापन में अंतर –
मापन | मूल्यांकन |
मापन का क्षेत्र सीमित होता है । मापन में व्यक्तित्व के कुछ ही आयामों की परीक्षा संभव होती है । | मूल्यांकन का क्षेत्र व्यापक होता है । इसमें छात्र के संपूर्ण व्यक्तित्व की परीक्षा की जाती है । |
मापन का अर्थ साक्ष्यों का एकत्रीकरण करना होता है । | मूल्यांकन का कार्य साक्ष्यों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकालना है । |
मापन पाठ्यवस्तु केन्द्रित होता है । | मूल्यांकन उद्देश्य केन्द्रित होता है । |
मापन में अधिक श्रम एवं समय की आवश्यकता नहीं होती । | मूल्यांकन में अधिक श्रम एवं समय की आवश्यकता होती है । |
मापन किसी छात्र के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा व्यक्त नहीं करता । | मूल्यांकन के आधार पर किसी छात्र के विषय में स्पष्ट धारणा बनायीं जा सकती है । |
सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन
सतत् और व्यापक मूल्यांकन का अर्थ छात्रों के विधालय आधारित मूल्यांकन की प्रणाली से है, जिसमें छात्रों के विकास के सभी पक्ष शामिल हैं । सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन में मूलरूप से विधार्थी के ज्ञान की परीक्षा के स्थान पर उसके अधिगम की प्रक्रिया को मूल्यांकन के लिए चुना गया है । इसमें शैक्षिक एवं सह-शैक्षिक पक्षों को शामिल करते हुए छात्रों की वृद्धि और विकास को परखने की योजना है क्योंकि सोच, मनोवृत्तियों और क्षमताएं अपने-आपको लिखित शब्दों के अलावा अन्य रूपों में प्रकट करती है ।सतत् मूल्यांकन का अर्थ है, विधार्थी के विषयवस्तु ज्ञान को आँकने के लिए वर्ष भर में एक या दो परीक्षाएं ली जाती हैं, तथा उसके आधार पर छात्रों को अंक अथवा ग्रेड दिए जाते हैं । सतत् मूल्यांकन में छात्रों के प्रदार्शन को औपचारिक तथा अनोपचारिक तरीके से मूल्यांकन किया जाता है और व्यापक मूल्यांकन में विधार्थी के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के मूल्यांकन का ध्यान तख्ता है ।
सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की विशेषताएँ –
सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन से बच्चे के विकास का पता चलता है । इससे एक शिक्षक को यह पता चलता है कि बच्चे अच्छे से सीख पा रहें हैं कि नहीं, उसको परेशानी कहाँ है ।
- यह संरचनात्मक मूल्यांकन तथा बहुविध तकनीकों पर आधारित मूल्यांकन है ।
- सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन छात्रों का विद्यालय आधारित मूल्यांकन है ।
- सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन में विधार्थियों के विकास से संबंधित सभी पक्षों को शामिल किया जाता है ।
- सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन विधार्थियों के सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की निरस्तरता पर आधारित है ।
- यह सह-शैक्षिक क्षेत्रों में मूल्यांकन पहचान मानदंडों के आधार पर तकनीकों का उपयोग करके किया जाता है।
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वृध्दि और विकास, विकास की अवस्थाएं, उनके अंतर एवं प्रभावित करने वाले कारक