हिंदी नाटक और रंगमंच की परंपरा

हिंदी नाटक और रंगमंच की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। भरतमुनि से पहले ही नाटक एवं रंगमंच का विकास हो चुका था। उसी से प्रेरणा लेकर उन्होंने नाट्यशास्त्र की रचना की। सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में नाट्य शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है जिसमें नृत्य, संगीत, अभिनय, वेशभूषा, रंगमंच,रस, दर्शक आदि सभी आते हैं। भरतमुनि को भारतीय नाट्यशास्त्र का संस्थापक माना जाता है। नाटक को पंचमवेद कहा गया है।

नाटक प्रदर्शन कला का एक रूप है जहां संगीत संवाद और नृत्यों के द्वारा कहानियों का निर्माण किया जाता है। हिंदी रंगमंच की शुरुआत 1853 ईस्वी में नेपाल के मांडगंव में अभिनीत विधाविलाप नाटक से माना जाता है।

हिंदी नाटक का उद्भव-

वास्तव में ‘हिंदी नाटक’ का विकास आधुनिक युग में हुआ। क्योंकि इससे पहले हिंदी नाटकों में लक्षणों का अभाव था। हिंदी का नाटक साहित्य सन् 1843 से 1866 ईसवी में लिखे गए हिंदी नाटकों के दो रूप थे – साहित्यिक और रंगमंचीय। इसमें जितने भी साहित्यिक श्रेणी के नाटक काव्यत से भरपूर है और दूसरा रंगमंचीय इसकी जरूरत की पूर्ति पर अधिक ध्यान दिया गया है।

हिंदी साहित्य का प्रथम नाटक ‘प्रबोध चंद्रोदय’ है एवं इसका गद्य और पद्य दोनों ब्रजभाषा में अनुवाद किया गया है, भारतेंदु के पिता ‘गोपालचंद्र’ द्वारा रचित ‘नहुष’ 1840 ईसवी में प्रकाशित की गई थी।

हिंदी में खेले जाने वाले नाटकों का आरंभ ‘ भारतेंदु हरिश्चंद्र’ से माना गया है, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1862 में ‘जानकी मंगल’ नामक हिंदी में खेला जाने वाला सबसे पहला नाटक लिखा।

हिंदी नाटक का विकास-

हिंदी नाटक के विकास को समझने के लिए उसे निम्न कालों में बांटा गया है-

  • भारतेंदु युग (1857-1900)
  • प्रसाद युग (1900-1953)
  • वर्तमान युग (1953 से अब तक)

भारतेन्दु युग – भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अनेक प्रकार के नाटक लिखे और नाट्य रचना की अनेक परंपराओं को जन्म दिया भारतेंदु जी ने सभी परंपरा के अंतर्गत छोटे बड़े सभी प्रकार के नाटक लिखे हैं। इसीलिए हिंदी में नाटक लिखने की परंपरा का आरंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखी गई पौराणिक नाटक ‘ चंद्रावली नाटिका’ ,’ नील देवी’ एवं ‘भारत दुर्दशा’ नाटक लिखकर भारतेंदु ने सर्वप्रथम देश प्रेमी की भावना तथा राष्ट्रीय त्योहार को रंगमंच रूप प्रदान किया। इस युग में संस्कृत बंगला और अंग्रेजी के अनेक नाटकों का अनुवाद हिंदी में किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से ही अनुवाद की परंपरा की शुरुआत हुई थी। भारतेंदु का ‘विद्या सुंदर’ बंगला नाटक का अनुवाद है, ‘ कर्पूर मंजरी’, मुद्राराक्षस, पाखंड, विडंबना, धनंजय विजय यह सभी संस्कृत नाटकों के अनुवाद हैं।

इस युग में रचित नाटक मुख्यतः संस्कृत नाट्य शैली पर आधारित है, परंतु उन पर पाश्चात्य शैली का प्रभाव भी होने लगता है एवं इस युग के नाटकों की भाषा खड़ी बोली है पर बीच-बीच में पदों में ब्रज भाषा का भी प्रयोग किया गया है। अर्थात इस युग के नाटकों में सामाजिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक सभी प्रकार के नाटकों के रचना की गई है।

भारतेंदु युग के प्रमुख अन्य नाटककार – बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, लाला श्रीनिवास दास, राधा कृष्ण दास तथा किशोरी लाल गोस्वामी आदि।

प्रसाद युग – भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने हिंदी में नाट्य साहित्य की रचना की पर उसमें पाश्चात्य नाट्यशैली को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाए थे। आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावाद के कवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्र को एक नई चेतना दी। अतः इसे हिंदी साहित्य का विकास युग कहा जाता है। जयशंकर प्रसाद जी ने जितने भी नाटक लिखे हैं उनमें से अधिकतर नाटक ऐतिहासिक है प्रसाद जी का नाट्य – साहित्य के विकास क्रम में एक क्रांतिकारी घटना है।

प्रसाद युग के नाट्य-साहित्य के प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

इस युग के नाटकों में भारतीय पाश्चात्य शैली के तत्वों का समन्वय हुआ है। एवं उनके नाटकों में सामाजिक ,ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीयता की झलक देखने को मिलती है। इनके द्वारा लिखे गए नाटक केवल धर्म से ही संबंधित नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्याओं, इतिहास एवं हमारे संस्कृति से भी संबंधित है।

वर्तमान युग – इसे ‘प्रशादोत्तर नाटक – साहित्य’ का युग भी कहा जाता है। इस युग में समस्याओं से संबंधित नाटक लिखे गए हैं। इस युग में विज्ञान के आविष्कारों के कारण रंगमंच से दुनिया में निरंतर विकास हो रही थी। जैसे – रेडियो ने नाटक को सुनने के लिए बना दिया। इसीलिए विज्ञान और दोनों मिलकर आगे बढ़ रहे हैं।

वर्तमान युग में रंगमंचीय तकनीक का विकास हुआ और आजकल के नाटकों में रंगमंच और अभिनेयता का विशेष ध्यान रखा जाता है। वर्तमान युग में प्रसाद युग की प्रतीकात्मक नाटक, गीति – नाट्य एकांकी आदि। इन नाटकों की नई शैलियों का उद्भव एवं विकास भी इसी युग में हुआ है। इस युग के प्रमुख नाटककार हैं – सेठ गोविंद दास, उदयशंकर भट्ट, गोविंद बल्लभ पंत, चतुर्सेन शास्त्री, हरिकृष्ण प्रेमी।

वर्तमान युग में नाटकों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

  • वर्तमान युग में यथार्थवादी समस्या मूलक नाटकों का प्रधान रहा है।
  • वर्तमान युग के नाटकों में विज्ञान के नए-नए आविष्कारों के कारण रंगमंच की तकनीक में लगातार विकास हुआ है।
  • इस युग में विज्ञान और मनुष्य जीवन की अलग-अलग दिशाओं में तेजी से आज का हिंदी नाट्य साहित्य कदम से कदम मिलाकर चल रहा है।
  • वर्तमान युग में नाटकों के द्वारा लोगों तक जागरूकता फैलाया जाता है।
  • इस युग में रंगमंचीय तकनीक का विकास होने के साथ-साथ रेडियो रूपक, भाव नाट्य आदि नाटकों की नई – नई शैलियों का उद्भव और विकास हुआ है।

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