सामाजीकरण क्या है, इसके अर्थ, परिभाषा, प्रकार, विशेषताएं एवं इसके उद्देश्य

समाजीकरण (socialization) एक प्रक्रिया है जिससे मनुष्य समाज से जुड़े रीति – रिवाज, संस्कृति, सभ्यता, व्यवहार, मिल – जुलकर रहना जैसे सारी चीज़ें सीखता है, समाजीकरण में मनुष्य समाज के साथ ताल- मेल बिठाना सीखता है।

समाजीकरण का अर्थ –

समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जहां इस समाज में रहने वाले सभी वर्गों के लोगों को और बच्चों को इसकी मूल्यों की जानकारी दी जाती है। बच्चा समाजीकरण के माध्यम से अपनी संस्कृति रीति – रिवाजों की जानकारी प्राप्त करता है।

समाजीकरण की परिभाषाएं –

पीटल वसरले अनुसार – “समाजीकरण वह पद्धति है जिसके द्वारा मनुष्य को सामाजिक समूह रीति- रिवाज और नियमों का प्रशिक्षण दिया जाताहै। समाजीकरण मानव समाज की गतिविधियों तथा संस्कृतियों का वाहक है।”

बोगार्डस के अनुसार – “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति मानव कल्याण के लिए एक दूसरे पर निर्भर होकर एक व्यवहार करना सीखते हैं और ऐसा करने में सामाजिक जिम्मेदारी व संतुलि व्यक्तित्व का अनुभव करते हैं।”

प्रो.ग्रीन के अनुसार – “समाजीकरण बहुत प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं आत्महत्या तथा व्यक्तित्व को प्राप्त करता है अर्थात व्यक्ति का व्यक्तित्व समाजीकरण द्वारा ही विकसित होता है।”

जॉनसन के अनुसार – “समाजीकरण सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य को करने के योग्य बनाता है।”

फिचर के अनुसार – “समाजीकरण में प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य सामाजिक व्यवहारों को ग्रहण करता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है।”

एंथोनी गिडॉन्स के अनुसार – “समाजीकरण उस पद्धति से मनुष्य का परिचय कराता है जो उसमें सामाजिक संस्कृति को ढालती है।”

फ्री टोनी मिल्टन के अनुसार – वह प्रक्रिया जिससे हम उस समाज की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जिसके द्वारा हम समाज की विशेषताओं को सीखे तथा सोचने और व्यवहार करने के तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं, समाजीकरण कहलाती है।”

किंग्सले डेविस के अनुसार – “वह प्रक्रिया जिसके द्वारा एक नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी के रूप में ढाला जाता है, समाजीकरण कहलाता है।”

समाजीकरण के प्रकार –

समाजीकरण को हम दो रूप में समझते हैं –

1)प्राथमिक स्माजीकरण

2)द्वितीय समाजीकरण या गौण समाजीकरण

1) प्राथमिक समाजीकरण – एक बच्चे का प्रथम समाजीकरण उसके परिवार में ही होता है, बच्चे का समाजीकरण का जो नींव होता है वह सबसे पहले उसका परिवार ही होता है। वह अपने परिवार से ही सीखता है कि सामने वाले के साथ कैसे बात करना है, कैसे व्यवहार करना है। परिवार में ही बच्चा सामाजिक और नैतिक मूल्यों को सीखता है।

2) द्वितीय समाजीकरण या गौण समाजीकरण – गौण समाजीकरण में एक बच्चा अपने पड़ोसी से, अपने दोस्तों से, अपने शिक्षक से सीखता है। समूह में रहकर सीखना ही गौण समाजीकरण कहलाता है। बच्चों का समाजीकरण और भी कई माध्यम से होता है जैसे- अलग-अलग किताबों से, मीडिया से, अस्पतालों से आदि। इन सभी माध्यमों से बच्चे का समाजीकरण होता है।

समाजीकरण की विशेषताएं –

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है क्योंकि एक मनुष्य का विकास समाज में रहकर ही होता है। समाजीकरण की मुख्य विशेषता यह है कि मनुष्य का सामाजिक विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। मनुष्य हरेक अवस्था में अनुभव कर सीखता है। समाजीकरण की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

1) सीखने की प्रक्रिया – समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है, पर सभी प्रकार कि बातें सीखना समाजीकरण नहीं कहलाता है। सीखने की प्रक्रिया में एक बच्चा अच्छे व्यवहारों को, रीति -रिवाजों एवं नियमों को सीखता है, जिन बातों को सामाजिक रूप से सही माना जाता है, तो वह उन बातों को सीखकर जीवन में आगे चलकर समाज का क्रियाशील सदस्य बन सकता है।

2) स्व का विकास – समाजीकरण के द्वारा बच्चे में ‘ स्व ‘ का विकास होता है। एक बच्चे में अपने प्रति आत्मविश्वास जागरूक होता है कि वह अपने कार्यों को स्वयं से कर लेगा और थी आत्मविश्वास उस बच्चे के लिए आगे जीवन में वह कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना भी कर लेगा।

3) समाज से संबंध – समाजीकरण की प्रक्रिया में एक बच्चा जो बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक समाज में रहकर ही बड़ा होता है और समाज में रहकर ही सारे तौर – तरीके, व्यवहारों को सीखता है, मिल – जुलकर रहना सिखता है।जिससे उसका सामाजिक विकास होता है और यह समाज में रहकर ही संभव है।

4) सामाजिक अनुकूलन – समाजीकरण मनुष्य को सामाजिक प्रथाओं, परंपराओं को पालन करना एवं अनुकूलन करना सीखता है।

5) संस्कृति का हस्तांतरण – एक बच्चा अपनी संस्कृति अपने परिवार से सीखता है और आगे चलकर वह अपने आने वाले पीढ़ी को भी सिखाता है। जो उसने अपने परिवार से सीखा है इसीप्रकार संस्कृति का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी बढ़ती जाती है।

समाजीकरण के उद्देश्य –

1) आधारभूत नियमबद्धता का विकास – समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में अनुशासन और नियमबद्धता उत्पन्न करना है, जिससे की मनुष्य का सामाजिक जीवन सुचारू रूप से चलता रहे। इसीलिए समाज में अनुशासन और नियमबद्धता का होना जरूरी है।

2) इच्छाओं की पूर्ति – समाजीकरण के द्वारा इच्छाओं की पूर्ति की जाती है क्योंकि समाजीकरण में पुरस्कार स्वयं अपने आप इच्छाओं की पूर्ति करने में सहायक होता है।

3) क्षमाताओं का विकास – समाजीकरण मनुष्य में ऐसी क्षमताएं उत्पन्न करता है जिससे वह किसी भी प्रकार की सामाजिक परिस्थिति के साथ आसानी से अनुकूलन कर सके। इससे मनुष्य की क्षमताओं का विकास होता है।

4) सामाजिक भूमिकाओं को निभाने की सीख – समाजीकरण के द्वारा मनुष्य अपनी सामाजिक भूमिका और उससे संबंधित अभिवृत्तियां समाजीकरण के द्वारा ही सीखता है। समाज में मनुष्य को अलग – अलग भूमिकाओं को निभाने का मौका मिलता है और उसे इसी समाज से सामाजिक भूमिकाओं को निभाने की सीख भी मिलती है।

सामाजीकरण के सिद्धांत-

लगभग सभी समाजशास्त्रियों का मानना है कि एक बच्चे के विकास के केंद्र में मूल रूप से ‘ स्वत्व ‘ मौजूद रहता है। कुछ समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने अनुसार कुछ सिद्धांत दिए हैं जो निम्नलिखित हैं –

कुले का दार्पणिक प्रतिबिंब का सिद्धांत – अमेरिका के प्रसिद्ध समाजवादी “एच.सी.कुले” को उनके “दार्पणिक प्रतिबिंब का सिद्धांत” के लिए जाना जाता है। एच. सी. कुले ने दार्पणिक प्रतिबिंब का सिद्धांत को 1902 में प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अंतर्गत कुले का मानना है कि समाज एक दर्पण के समान होता है जो हम देखते हैं दूसरों के मतानुसार हम स्वयं को वैसे ही मानने लग जाते हैं। जैसे – तौर – तरीके, व्यवहार करना यह सब हम समाज को देख कर ही सीखते हैं और हम भी वैसे ही करने लग जाते हैं। इसीलिए समाज में जैसे हम दूसरों के साथ व्यवहार करेंगे, ठीक वैसे ही लोग भी हमारे साथ व्यवहार करेंगे।

जॉर्ज हर्बर्ट मीड का स्व सिद्धांत – मीड का “स्व” सिद्धांत को “मैं” और “मुझे” का सिद्धांत भी कहा जाता है। सिद्धांत के अनुसार बच्चे अपने चारों तरफ हो रही गतिविधियों की कॉपी करते हैं। बच्चे हर किसी से कुछ ना कुछ सीखते हैं। बच्चे जब खेलते हैं तब वह वही नकल करते हैं जो उन्होंने देखकर सीखा होता है, जैसे – डॉक्टर और मरीज़, टीचर और स्टूडेंट। इस तरह के खेल-खेलकर नकल करना सीखते हैं। वह स्वयं को उस जगह रखकर नकल करते हैं, उन्हें अपने जीवन में उतारना शुरू कर देते हैं। बच्चे इस अवस्था में अपने बारे में दूसरों के विचारों को समझने लगते हैं और जब उसके अंदर ‘ मै ‘ और ‘ मुझे ‘ की भावना आ जाती है, तब बच्चे का सामाजिक विकास शुरू हो जाता है।

दुर्खीम का सामूहिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत – दुर्खीम ने “सामूहिक प्रतिनिधित्व” का सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इन्होंने अपने इस सिद्धांत के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि हरेक समाज के अपने नियम और कायदे – कानून होते हैं। समाज में रहने वाले लोग सामूहिक रूप से अपने समाज के नियमों और कायदे – कानून को मानते हैं।

एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत – “मनोसामाजिक सिद्धांत” को “एरिक्सन का सिद्धांत” भी कहा जाता है। इस सिद्धांत को अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एरिक एरिक्सन के द्वारा प्रतिपादित किया गया। इनका मानना है कि एक बच्चे के विकास पर “सामाजिक अनुभूतियों” का प्रभाव पड़ता है। एरिक्सन ने अपनी पुस्तक “चाइल्डहुड एंड सोसाइटी” में “मनोसामाजिक सिद्धांत” दिया। जिसमें उन्होंने मनोसामाजिक विकास के आठ चरण बताएं हैं। इसमें इनका मुख्य उद्देश्य बच्चों में व्यक्तिगत पहचान कैसे होती है उस पर था। जिसमें एक व्यक्ति को शैशवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक पहुंचने में आठ चरणों से होकर गुजरना पड़ता है।

  1. विश्वास बनाम विश्वास – ( Trust vs Mistrust ) यह 0-18 माह तक की अवस्था होती है जो शैशवावस्था से संबंधित है। जिस बच्चे को अपने माता-पिता से स्नेह और प्यार मिलता है, उस बच्चें में विश्वास की भावना विकसित होने लगता है और जिन बच्चों को अपने माता-पिता से स्नेह, प्यार आदि नहीं मिलता है तो वह बच्चा रोने लगता है जिससे वह दुखी हो जाता है और उसमें अविश्वास की भावना उत्पन्न होने लगता है।
  2. स्वायतता बनाम शक/लज्जा – (Autonomy vs Doubt) यह 18 माह से 3 वर्ष तक की अवस्था होती है जो शैशवावस्था से संबंधित है। इस अवस्था में बच्चे स्वयं ही कार्यों को करने लगते हैं जैसे- अपने से चप्पल पहनना, बटन लगाना आदि। ऐसे में अगर बच्चें चप्पल उल्टा पहनते हैं, बटन ऊपर-नीचे लगा लेते हैं और तब उन्हें अपने माता – पिता द्वारा डांट मिलती है या फिर उसे यह बोला जाता कि तुमसे नहीं हो पाएगा, तुम नहीं कर सकते हो। तो फिर ऐसी स्थिति में उस बच्चे में स्वयं के प्रति शक या लज्जा की भावना उत्पन्न होने लगता है।
  3. पहल बनाम अपराध/दोष – (Intiative vs Guilt) यह 3- 5 वर्ष तक की अवस्था होती है जो पूर्वबाल्यवस्था से संबंधित है। जिसमें बच्चे को कुछ नया करने का, कुछ क्रिएटिविटी करने का मन करता है। जब बच्चा कहीं कुछ देख लेता है और वह उसे अपने से बनाने की कोशिश करता है। अगर उसे समय उसके माता-पिता उसे डांट कर मना कर दें तो उस बच्चे में दोष या guilt की भावना उत्पन्न होने लगता है। ऐसे में उस बच्चे में कुछ नया करने की इच्छा खत्म होने लगती है। जिस बच्चे के माता-पिता अपने बच्चे को कुछ नया या क्रिएटिव करने से उसकी तारीफ़ या उसकी प्रशंसा करते हैं, तो उस बच्चे में अन्वेषण की प्रवृत्ति होती है।
  4. परिश्रम या उधम बनाम हीनता- (Competence Industry vs Feriority) यह 6-12 वर्ष तक की अवस्था होती है जो बाल्यावस्था से संबंधित है। इस अवस्था में बच्चा स्कूल जाने लगता है और वह तरह-तरह के क्षेत्र में परिश्रम करता है जैसे- पढ़ाई, खेलकूद आदि। इस समय बच्चा अलग-अलग चुनौतियों का सामना करता है अगर वह सफल हो जाता है तो ठीक है, परंतु अगर वह उन कार्यक्षेत्रों में असफल हो जाता है तो उसमें हीनता की भावना पैदा होने लगती है। इसीलिए इस अवस्था में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी एक शिक्षक की होती है कि अगर इस तरह की चुनौती बच्चे के सामने आती है, तो शिक्षक बच्चे को प्रेरित करें, उसका मनोबल बढ़ाए कि तुम कर सकते हो। इससे बच्चे में मनोसामाजिक गुण पैदा होता है और उस बच्चे में किसी भी कार्य को करने की योग्यता बढ़ जाती है।
  5. पहचान बनाम भ्रांति- (Identity vs confusion)यह 12-18 वर्ष तक की अवस्था होती है। जो किशोरावस्था से संबंधित है इस अवस्था में बच्चा अपने पहचान को लेकर बहुत कंफ्यूज रहता है कि उसे किस क्षेत्र में अपनी पहचान बनानी है। उसे क्या करना है, क्या बनना है। यही भ्रांति उसके मन में चलता रहता है।
  6. आत्मीयता बनाम अलगाव –(Intimacy vs isolation)यह 18 – 35 वर्ष तक की अवस्था होती है। युवावस्था से संबंधित है। इस अवस्था में व्यक्ति दूसरों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाता है, अपना परिवार बनाता है सबके साथ मिल जुलकर रहता है। कुछ व्यक्ति सफल होने के बावजूद दूसरों के साथeघनिष्ठ संबंध नहीं बना पाते हैं, अपना परिवार नही बना पाते हैं। वैसे व्यक्ति अलगाव की ओर बढ़ने लगते हैं।
  7. जननात्मकता बनाम स्थिरता –(Generativity vs stagnati) यह 35- 65 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति दूसरों के बारे मे सोचता है, कुछ ऐसा करने का सोचता है कि उसे सब याद रखें। कुछ व्यक्ति स्थिर रहते हैं उन्हें किसी से कुछ मतलब नहीं होता है बस अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं और शांति सेरहते हैं उनके जीवन में स्थिरता आ जाती है।
  8. संपूर्णता बनाम निराशा –(Integrity vs Despair) यह 65 वर्ष से ऊपर की अवस्था होती है जिसे प्रौढ़अवस्था कहा जाता है। यह व्यक्ति का अंतिम पढ़ाव होता है।इस समय व्यक्ति अपने भविष्य के बारे में नहीं बल्कि वह अपने बीते हुए दिनों के बारे में सोचता है कि उसने अपने पूरे जीवन में क्या किया है। उसने अपने पूरे जीवन में कितनी सफलता हासिल की है और कितनी असफलता मिली है। अगर उसने सफलता ज्यादा हासिल की है तो उसे संपूर्णता का अनुभव होगा। मगर जिसे अपने जीवन में असफलताएं मिली हो तो वह व्यक्ति निराश हो जाता है उसे निराशा का अनुभव होता है।

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