व्यक्तित्व (Personality)

व्यक्तित्व (Personality) इसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Persona’ से हुई है। ‘Persona’ का अर्थ है (बाहरी वेषभूषा या मुखौटा)। व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के  बदले हुए रूप से है, जिसमें उसकी बोलचाल, व्यवहार, रंग, रूप, वेशभूषा आदि आते हैं।

व्यक्तित्व की परिभाषा

व्यक्तित्व के अध्ययन पर केन्द्रित करने वाले पहले मनोवैज्ञानिक “गार्डन विलार्ड आलपोर्ट” थे। और उन्हें व्यक्तित्व मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक थे। आलपोर्ट ने व्यक्तित्व को उन मनोसामाजिक प्रणालियों के व्यक्ति के भीतर संगठन के रूप मे परिभाषित किया है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन, परिस्थितियों, अनुकूलन को दर्शाता है। अमेरिकी मनोचिकित्सा संघ के नैदानिक और सांख्यिकीय मैन्युअल के अनुसार व्यक्तित्व लक्षण सामाजिक और व्यक्तिगत सन्दर्भों को विस्तृत श्रृंखला में प्रदर्शित करते हैं।

कई मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व का अध्ययन किया और कुछ व्यक्तित्व को समझने और बनाने के लिए सिद्धांत विकसित किये हैं और कुछ मनोवैज्ञानिकों ने एक या दो मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया है। कुछ वैज्ञानिकों नें एक या दो मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया है, जैसे – व्यक्तित्व पर अनुवांशिकता का प्रभाव।

  • अलपोर्ट के अनुसार “व्यक्तित्व व्यक्ति में उन मनोशारीरिक अवस्थाओं का गतिशील संगठन है, जो उनके पर्यावरण के साथ उसका अद्वितीय सामंजस्य निर्धारित करता है।”
  • वैलनटाईन के अनुसार “व्यक्तित्व जन्मजात और ओर्गेन प्रवृत्तियों का योग है।”
  • मनु के अनुसार “व्यक्ति के सभी पक्षों का एक विशिष्ट संकलन होता है, जो उसके सम्पूर्ण रूप को कुछ पक्ष, अन्यों की अपेक्षा अधिक विशिष्ठता प्रदान करता है।”
  • वारेन के अनुसार “व्यक्ति का संपूर्ण मानसिक संगठन है, जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होती है।”
  • रैक्स के अनुसार “व्यक्तित्व समाज द्वारा मान्य तथा अमान्य गुणों का संगठन है।”
  • बिग तथा हंट के अनुसार “किसी व्यक्ति के समस्त व्यवहार प्रतिमाओं और उसकी विशेषताओं का योग ही उसका व्यक्तित्व है।”
  • वुडवर्थ के अनुसार “व्यक्तित्व व्यक्ति के व्यवहार के समस्त गुणों को कहते हैं।”

व्यक्तित्व की प्रकृति –

व्यक्तित्व विचारों, भावनाओं और व्यवहारों की विशेषताओं से बना होता है, जो व्यक्ति को विशिष्ठ बनाता है। यह व्यक्ति के भीतर उत्पन्न होता है और जीवन भर साथ रहता है। व्यक्तित्व की कुछ प्रकृति है जैसे –

  • स्थिरता – स्थिरता व्यवहार के लिए एक पहचानने योग्य आदेश और नियमितता से होती है। व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में भी एक ही तरीके से या सामान तरीके से स्थिरता पूर्वक काम करते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक और शारीरिक – व्यक्तित्व का निर्माण मनोवैज्ञानिक है, परंतु शोध से पता चला है कि यह जैविक प्रक्रियाओं और आवश्यकताओं से भी प्रभावी होता है।
  • व्यवहार और कार्य का प्रभाव – व्यक्तित्व केवल प्रभावित ही नहीं करता है, बल्कि प्रभाव भी डालता है कि हम अपने वातावरण में कैसे रहते है और कैसे प्रतिक्रिया करते हैं।
  • कई अभिव्यक्तियाँ – व्यक्तित्व की अभिव्यक्तियाँ व्यवहार से ज्यादा दिखती है। यह हमारे विचारों, भावनाओं, करीबी रिश्तों तथा अन्य सामाजिक संबंधों में भी देखी जा सकती है।

व्यक्तित्व की विशेषताएं –

व्यक्तित्व की अपनी विशेस्ताएँ होती है जैसे आत्म-चेतना, सामाजिकता, दृढ इच्छा शक्ति, समायोजन, शारीरिक मानसिक स्वास्थ आदि।

  • आत्मचेतना – आत्मचेतना मानव को सभी जीव-धारियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कराती है। आत्मचेतना के कारण ही व्यक्तित्व की उपस्थिति को स्वीकार किया जाता है। पशु और बच्चों में आत्मचेतना ना होने के कारण यह कहते हुए कभी नहीं सुनाया जाता है कि, उस पशु या बच्चे का व्यक्तित्व अच्छा है। जब व्यक्ति यह जान जाता है कि, समाज में उसकी स्थिति क्या है तभी उसमें व्यक्तित्व का होना स्वीकार किया जाता है।
  • सामाजिकता – समाज से अलग मानव और उसके व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। मानव में आत्मचेतना का विकास तभी होगा, जब वह समाज के अन्य व्यक्तियों के संपर्क में आकर क्रिया और अंतर्क्रिया करता है। इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।
  • दृढ इच्छा शक्ति – दृढ इच्छा शक्ति व्यक्ति की जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष करके अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाने की क्षमता प्रदान करता है। इस शक्ति की निर्बलता उसके जीवन को अस्त-व्यस्त करके उसके व्यक्तित्व को विघटित कर देती है।
  • समायोजन – समायोजन अर्थात स्वयं को परिवेश की अनुसार ढालना। हर व्यक्ति को अपने जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को बदलना ही समायोजन कहलाता है।
  • शारीरिक मानसिक स्वास्थ – व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना चाहिए। मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होने पर ही व्यक्ति के सभी गुणों का विकास हो सकता है।

व्यक्तित्व के प्रकार –

व्यक्तित्व के तीन प्रकार हैं। इन तीनों प्रकार के प्रवृत्तियों से तीन अलग-अलग प्रकार के व्यक्ति का निर्माण होता है जो निम्नलिखित है –

  • आक्रामक प्रकार – यह व्यक्तियों के विरुद्ध जाने से बनता है। ऐसे व्यक्ति आक्रामक, शक्की और अधिक गुस्से वाले होते हैं। ऐसे व्यक्ति दूसरे पर अपना अधिकार दिखाने, उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं।
  • फरियादी प्रकार – यह व्यक्तियों व्यवहार सामाजिक रूप से बेहतर तथा उसके गुणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। ऐसे व्यक्ति का व्यवहार मैत्रीपूर्ण होता है।
  • विलगित प्रकार – ऐसे व्यक्ति असामाजिक होते हैं। एकांत में रहना पसंद करते हैं। दूसरे लोगों से दूरी बनाये रखते हैं। उन्हें दूसरे लोगों से ज्यादा घुलना-मिलना पसंद नहीं होता।

व्यक्तित्व के सिद्धान्त –

व्यक्तित्व के सिद्धान्त को अलग-अलग विद्वानों ने अपने विचारधारा, अनुभव तथा रिसर्च के आधार पर विचार व्यक्त किये हैं।

  • वेन्डरा – यह सिद्धान्त व्यक्ति के व्यवहारवादी दृष्टिकोण पर आधारित है, जिसमें स्पष्ट रूप से दिखने वाले बाह्य व्यवहारों के आधार पर व्यक्ति को समझने का प्रयास किया गया है। यह सिद्धान्त स्किनर, पावलोव आदि के सामान विचारधारा का है। परंतु इस सिद्धान्त के उद्दीपक तथा अनुक्रिया के बीच में आने वाले आंतरिक संज्ञात्मक चरों जैसे- आवश्यकता प्रणोद, इच्छा, संवेग आदि को भी महत्व दिया गया है। इसलिए इस सिद्धान्त को सामाजिक अधिगम सिद्धान्त के साथ सामजिक-संज्ञात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त का यह मानना है कि अधिकतर मानव व्यवहार व्यक्ति अपने जीवन काल में सीखता है। वे मानते हैं कि मानव व्यवहार संज्ञात्मक, व्यवहारात्मक एवं पर्यावरणीय निर्धारकों के बीच अन्योय अंतः-क्रिया का परिणाम है। इस संप्रत्यय के अनुसार मानव क्रिया में तीन कारकों का प्रभाव हमेशा पड़ता है – 1) बाह्य वातावरण 2) व्यवहार एवं 3) घटनाएं।
  • कार्ल रोजर्स – कार्ल रोजर्स द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्त को आत्म सिद्धान्त या व्यक्ति-केन्द्रित सिद्धान्त कहा जाता है। रोजर्स का सिद्धान्त उनके द्वारा प्रतिपादित क्लायंट केन्द्रित मनोचिकित्सा पर भी आधारित है। इन्होनें व्यक्तित्व सिद्धान्त के मुख्य दो पहलुओं पर बल डाला है –1)प्राणी – रोजर्सके अनुसार प्राणी एक दैहिक जीव है जो, शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही तरह से कार्य करता है। सभी तरह के चेतन एवं अचेतन अनुभूतियों के योग से जिस क्षेत्र का निर्माण होता है, उसे प्रासंगिक क्षेत्र कहते हैं। 2)आत्मन – यहरोजर्स के सिद्धान्त का सबसे महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। अनुभव के आधार पर धीरे-धीरे प्रासंगिक क्षेत्र का एक भाग विशिस्ट हो जाता है। इसे रोजर्स नें आत्मन की संज्ञा दी है। इसका विकास शैशवास्था में होता है।
  • एडलर – एडलर द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्त को ‘वैयक्तिक मनोविज्ञान का सिद्धान्त’ कहा जाता है। इन्होनें मुख्य रूप से व्यक्ति को सामाजिक प्राणी माना है, ना कि जैविक। एडलर के अनुसार व्यक्ति का निर्धारण जैविक आवश्यकताओं द्वारा नहीं अपितु व्यक्ति के सामाजिक वातावरण में हो रही अंतःक्रियाओं द्वारा होता है। एडलर ने कहा कि मन तथा शरीर, चेतन एवं अचेतन में स्पष्ट अंतर कर संभव नहीं है।  

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